जूट

वैश्विक क्षेत्रफल: 1.5 मिलियन हेक्टेयर
वेल्टेकर पर क्षेत्रफल: प्रतिनिधित्व नहीं है
उत्पत्ति क्षेत्र: दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया
मुख्य उत्पादन क्षेत्र: भारत, बांग्लादेश, चीन, नेपाल, थाईलैंड
उपयोग / मुख्य लाभ: वस्त्रों के लिए प्राकृतिक रेशा देने वाला पौधा
कल्पना करो एक ऐसा पौधा, जिसकी साधारण, सुनहरी रेशों से करोड़ों लोग अपना जीवन यापन करते हैं और जो दुनिया को अधिक टिकाऊ बनाता है। यही है जूट!
इसकी यात्रा हजारों साल पहले दक्षिण एशिया की उपजाऊ घाटियों में शुरू हुई, जहाँ लोगों ने खोजा कि इसके तनों से मज़बूत रेशे प्राप्त किए जा सकते हैं। ये रेशे लंबी यात्राओं में सामान की सुरक्षा करते थे, लोगों के वस्त्र बनते थे और खेतों की मिट्टी को उपजाऊ बनाते थे। आज जूट केवल अतीत की एक विरासत नहीं है। यह स्थिरता और आशा का प्रतीक है – जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण जैसी समस्याओं के समाधान की एक प्रेरणादायक मिसाल।
जूट का एक परिचय
जूट (Corchorus spp.), विशेष रूप से Corchorus capsularis (सफेद जूट) और Corchorus olitorius (तोसा जूट) की प्रजातियाँ, मालवेसी (Malvaceae) कुल के अंतर्गत आती हैं। यह एक वार्षिक, तेजी से बढ़ने वाला पौधा है, जो चार मीटर तक की ऊँचाई प्राप्त कर सकता है। इस पौधे की पत्तियाँ भाले के आकार की हरी होती हैं और फूल छोटे, पीले रंग के होते हैं। रेशे तने की बाहरी परत (बास्ट परत) से प्राप्त किए जाते हैं। जूट गर्म, आर्द्र जलवायु और बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों की उपजाऊ मिट्टी में सबसे अच्छी तरह उगती है।
उपनिवेशी व्यापार से लेकर जलवायु रक्षक तक
जूट का इतिहास तीसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व तक जाता है। ऐतिहासिक अभिलेख दर्शाते हैं कि प्राचीन मिस्र में इसका उपयोग रस्सियाँ और चटाइयाँ बनाने के लिए किया जाता था। भारत और आज के बांग्लादेश में भी जूट सदियों से स्थानीय अर्थव्यवस्था और दैनिक जीवन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है।
एक ओर ब्रिटिश साम्राज्य के उदय के साथ और दूसरी ओर 19वीं सदी में औद्योगिकीकरण के चलते, जूट सबसे महत्वपूर्ण व्यापारिक वस्तुओं में से एक बन गई। ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन ने बांग्लादेश और भारत में जूट उत्पादन को बढ़ावा दिया।
बंगाल की जूट, विशेष रूप से कोलकाता के आसपास के क्षेत्रों से, भारी मात्रा में यूरोप निर्यात की जाती थी। वहाँ इसका उपयोग बोरियों, कालीनों और अन्य उत्पादों के निर्माण में होता था, जो तेजी से बढ़ती औद्योगिक दुनिया के लिए अनिवार्य थे।
आज भी भारत और बांग्लादेश वैश्विक जूट बाजार पर प्रमुख रूप से हावी हैं और संयुक्त रूप से दुनिया की कुल जूट उत्पादन का लगभग 85 प्रतिशत उत्पादन करते हैं। जहाँ भारत मुख्य रूप से घरेलू बाजार के लिए प्रसंस्करण पर ध्यान देता है, वहीं बांग्लादेश निर्यात के क्षेत्र में अग्रणी है। चीन और नेपाल जैसे देश भी वैश्विक उत्पादन में अपना योगदान देते हैं।
हाल के वर्षों में जूट को एक बार फिर से नई पहचान मिल रही है, क्योंकि यह कृत्रिम सामग्रियों के लिए एक टिकाऊ विकल्प के रूप में उभर रही है। जैविक रूप से विघटनीय होने और पर्यावरण के अनुकूल होने के कारण जूट का उपयोग अब पैकेजिंग, थैलों और वस्त्रों में बढ़ता जा रहा है। हालाँकि, एक महत्वपूर्ण समस्या इसका अत्यधिक जल-उपभोग है – कपास की तरह जूट को भी बहुत अधिक पानी की आवश्यकता होती है, खासकर रेशे की प्रक्रिया के दौरान इसका भारी मात्रा में इस्तेमाल होता है।
क्या वास्तव में “सिर्फ” रेशा? – जूट के विविध उपयोग
जूट का मुख्य रूप से एक रेशा देने वाले पौधे के रूप में उपयोग होता है, जिससे बोरियाँ, कालीन, रस्सियाँ और पैकेजिंग सामग्री बनाई जाती हैं। फैशन उद्योग में भी यह अब कृत्रिम रेशों के पर्यावरण-अनुकूल विकल्प के रूप में तेजी से अपनाई जा रही है।
लेकिन जूट के और भी कई उपयोग हैं। कुछ क्षेत्रों में इसका उपयोग हरी खाद (ग्रीन मैन्योर) के रूप में किया जाता है ताकि मिट्टी को जैविक तत्वों से समृद्ध किया जा सके।
इसके अलावा, जूट रेशों का उपयोग कागज निर्माण और मिश्रित सामग्री (कॉम्पोज़िट मैटेरियल्स) के लिए भी किया जाता है।
और अंत में, जूट खाने योग्य भी है: तोसा जूट (Corchorus olitorius) की पत्तियाँ अफ्रीकी, अरबी और एशियाई व्यंजनों में एक सब्जी के रूप में (जैसे मोलोखिया) बहुत पसंद की जाती हैं।
अन्यायपूर्ण व्यापार
यूरोप और अमेरिका में फैशन उद्योग में जूट उत्पादों – जैसे थैले, जूते और अन्य एक्सेसरीज़ – की मांग बढ़ रही है। लेकिन क्या इसका लाभ बांग्लादेश और भारत के छोटे किसान और किसान महिलाएँ उठा पा रहे हैं? दुर्भाग्यवश, ऐसा अक्सर नहीं होता, क्योंकि उत्पादकों को आमतौर पर बहुत कम मेहनताना मिलता है। जूट की मूल्य श्रंखला पर बिचौलियों का दबदबा होता है, जो मुनाफे का बड़ा हिस्सा अपने पास रख लेते हैं। इसके अलावा, यह बाजार सुरक्षित नहीं है, क्योंकि यह लगातार पॉलीप्रोपाइलीन जैसी कृत्रिम रेशों से प्रतिस्पर्धा में बना रहता है।
स्रोत
International Jute Study Group
„The History and Revival of Jute“ (Smithsonian Magazine)
„Jute in Sustainable Development“ (UN Report)



